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1857 की क्रांति और सावरकर के विचार!

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 आज के दौर में इतिहास के सबसे विवादित व्यक्ति विनायक दामोदर सावरकर के विचारों पर मंथन करने की अति आवश्यकता महसूस होती है। जिस प्रकार गांधी, पटेल, भगत सिंह के विचारों को राजनीतिक दालों ने अपने हित के अनुकूल तोड़ा मरोड़ा हैं इतना ही अनुचित भाव और तरीके से सावरकर के विचारों को भी तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया। इसीलिए आज हम बात करते हैं विनायक दामोदर सावरकर कालापानी जाने से पहले कैसे विचार रखते थे। 'विनायक दामोदर सावरकर' ने अपने जीवन में कई किताबें लिखी इनमे से एक है '1857 का स्वतंत्र समर' जो की उन्होंने 1909 में लिखी। इस किताब के बारे में जानने के लिए पढ़े विनायक दामोदर सावरकर की किताब जो रही 38 साल तक प्रतिबंधित इस पुस्तक में सावरकर अवध के नवाब के एक आज्ञा पत्र को केन्द्रित कर लिखते हैं कि नवाब ने कहा - हिन्दुस्तान के हिन्दुओं और मुसलामानों, उठो! स्वदेश बंधुओं, परमेश्वर की दी हुई सौगात में सबसे श्रेष्ठ सौगात स्वराज्य ही है। यह ईश्वरीय सौगात जिसने हमसे छल से छीन ली है उस अत्याचारी राक्षस को बहुत दिन पचेगी क्या? यह ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध किया गया कृत्य क्या जय प्

वह राजा जिसे अंग्रेजों से मिलती थी 8 लाख रुपये पेंशन!

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भारत के इतिहास में कई राजा राजवाङे हुए। इनमे से कुछ ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारी और ग़ुलामी की बेड़ियों में खुद को बांध दिया और अंग्रेजो से पेंशन स्वीकार की जबकि कुछ ने आजाद रहने की बात कही और अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ी। अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ग़ुलामी स्वीकारने वालों में एक नाम आता है पुणे रियासत का जिसके पहले पेशवा बालाजी विश्वनाथ थे और अंतिम पेशवा श्रीमंत नाना साहब। नाना साहब का नाम किसने नहीं सुना होगा। ये वही नाना साहब थे जिन्होंने महारानी लक्ष्मी बाई को अपनी छोटी बहन की भांति मानकर अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी की शिक्षा दी थी। नाना साहब के पिता पेशवा बाजीराव के कोई सन्तान नहीं थीं इसीलिये उन्होंने नाना साहब को ढाई साल की उम्र में दत्तक (गोद लेना) स्वीकारा था। जब देश की छोटी बड़ी सभी रियासतें अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थी लड़ रही थी। तब सन 1818 में पेशवा बाजीराव नें अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ना सिर्फ पैंशन स्वीकार की जबकि दुसरी रियासतों को गिराने में अंग्रेजो का भरपूर सहयोग किया। जब अफगानिस्तान की लड़ाई में अंग्रेजों को धन की कमी पड़ी तब बाजीराव ने अपनी

और कितनी निर्भया???

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यह समाज आज पुरी तरह सड़ चुका है। मर तो बहुत पहले ही गया था मगर अब इस इस समाज का मुर्दा सड़ने लगा है। आज चारों ओर इस सड़न की बू फैली हुई है। यह बू एक महामारी की तरह फैल रही है जो हर किसी को संक्रमित करती जा रही है।  इस सड़न से फैल रहे संक्रमण से कोई विरला ही अछूता रहा होगा। जो स्वयं को इस भयानक संक्रमण से बचा सका हो। जिसने आज भी सम्वेदनशीलता, इंसानियत, सहिष्णुता न खोई हो। जिसकी आत्मा आज भी जागृत हो ऐसा मनुष्य इस समाज में खोजने पर भी मिलना असंभव सा प्रतीत होता है। अनपढ़ गँवारों से लेकर पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों तक किसी में वह भावनात्मकता, शालीनता, सम्वेदनशीलता नजर नहीं आती। आज के पढ़े लिखे वर्ग से तो अनपढ़ वर्ग कई मायनों में बेहतर नजर आता है, अनपढ़ होते हुए भी कुछ मायनों में शिक्षित नजर आता है। मुख्यतः पढ़े-लिखे दो प्रकार के होते हैं, एक होते हैं साक्षर और दूसरे होते हैं शिक्षित। आज साक्षर तो इस देश की लगभग 85 प्रतिशत आबादी होगी किन्तु शिक्षित 1 प्रतिशत भी नहीं यही इस डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश का दुर्भाग्य हैं।  यहाँ शिक्षित होने का अर्थ बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों से सिर्फ उपाधियाँ प्

विनायक दामोदर सावरकर की किताब जो रही 38 साल तक प्रतिबंधित - पंकज (नीलोफ़र)

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"1857 का स्वातंत्र्य समर" सन् 1909 में मराठी भाषा में प्रकाशित 'विनायक दामोदर सावरकर' द्वारा लिखित यह किताब जो 1909 में अपने प्रथम संस्करण के प्रकाशित होने के बाद से 1947 तक अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रतिबंधित रहीं। लेकिन भारत से लेकर विदेशों तक इसकी इतनी माँग रही कि 38 वर्षों के लंबे प्रतिबंध के बावजूद, अनेकों भाषाओं में इसका गुप्त रूप से बार - बार प्रकाशन होता रहा।  यह किताब 1857 में हुई क्रांति के दृश्यों को जीवंत कर आपके दिल-दिमाग़ को हर पन्ने पर रोमांचित कर देती है। इस किताब में 1857 में हुई क्रांति के कारणों को तथा उसमें उस समय के राजाओं, सैनिकों, नवाबों, पण्डितों, मौलवियों आदि के द्वारा उठाए गए कदमों और  उनके द्वारा किए गए प्रयासों का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया गया है। चाहे वह दिल्ली, मगध, पुणे, सतारा या ब्रह्मावद का अंग्रेजी हुकुमत में ज़बर्दस्ती अधिग्रहण हों या झाँसी जैसे स्वाभिमानी राज्य पर जबरन अधिग्रहण करने की कोशिश या फिर हिन्दुस्तानी सैनिकों को दिये जाने वाले कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी का उपयोग कर उनका धर्म भ्रष्ट करने की कोशिश। इस किता

गाँधी, नेहरू और अम्बेडकर ने नहीं लड़ा भगत सिंह का मुकदमा?

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 जैसे कि आजकल सोशल मीडिया का ज़माना है और आपको रोज़ कुछ नयी, रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी आसानी से मिल जाती है और इसी ज्ञान के बलबूते आजकल हर कोई अपने आपमें एक पीएचडी होल्डर हैं। लेकिन क्या आप इन जानकारियों की विश्वसनीयता के बारे में ज़रा भी सोचते विचारते है और अगर नहीं तो जरा सोचा करे और इसकी सत्यता को जाँचने की कोशिश अवश्य किया करें। कोई भी ख़बर आपको सोशल मीडिया के माध्यम से प्राप्त हुई हो चाहे वह आपकी विचारधारा के अनुसार आपको पूरी तरह गलत लगे या पूरी तरह सही लगे एक बार उसकी सच्चाई जानने की कोशिश जरूर करें। तो आइये आज हम बात करतें हैं गाँधी, नेहरू और अम्बेडकर ने बेरीस्टर होते हुए भी क्यों नहीं लड़ा भगत सिंह का मुकदमा?  इसके लिए हम सबसे पहले बात करते हैं भगतसिंह के जीवन की।  भगत सिंह का जन्म  सितंबर 1907 में पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गाँव में हुआ था जो अब पाकिस्तान में आता है। 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ उस समय भगत सिंह की उम्र 12 वर्ष थीं। इस हत्याकांड की खबर सुनते ही वह स्कूल से भागते हुए सीधे जलियांवाला बाग़ पहुचें थे। जहाँ सेंकड़ों लोगों को मरा हुआ देखकर

विद्यार्थियों के नाम जैल से भगत सिंह का पत्र।

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भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की ओर से जैल से भेजा गया यह पत्र 19 अक्तूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ लाहौर के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया था। अधिवेशन के सभापति नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। जो 22 अक्तूबर, 1929 को 'द ट्रिब्यून' नामक अखबार में प्रकाशित हुआ था। इस पत्र में वे लिखते हैं, इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आजादी के लिए जबरदस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी है।  क्या परिक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएँगे? नौजवानों को क्रांति का संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है। फैक्टरी, कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण अंसकद हो जाएगा। आज देश के प्र

आपको कोई अधिकार नहीं भगत सिंह का नाम लेने का!

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जैसा कि आपने इस लेख के शीर्षक में पढ़ा आपको कोई अधिकार नहीं है भगत सिंह का नाम तक लेने का। अगर आप भगत सिंह को सिर्फ इसलिए जानते या मानते हैं क्यों कि वो देश को आजाद कराने के लिए हँसते हुए फाँसी के फंदे पर झूल गए थे। या इसलिए कि उन्होंने ब्रिटिश अधिकारी सौंडर्स की हत्या की थी या इसलिए  क्यों कि उन्होंने असेम्बली में बम विस्फोट कर खुद की गिरफ़्तारी दी थी तो जी हाँ आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप भगत सिंह का नाम ले और बड़ी बड़ी बाते करें। इस लेख को आगे पढ़ने पर हो सकता है आपको अपने आप पर शर्मिंदगी महसुस हो या आप लेखक को कोसे या आप भगत सिंह को मानना ही छोड़ दें। आज आप जिस भगत सिंह को जानते या मानते हैं भगत सिंह ऐसे कभी नहीं थे। न ही वो ऐसा बनना चाहते थे। भगत सिंह ने कभी इस देश के युवा को बंदूक उठाने के लिए प्रेरित नहीं किया जब कि भगत सिंह तो चाहते थे कि इस देश का हर एक युवा कलम उठाए। पढ़े - लिखे और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करे। भगत सिंह खुद को नास्तिक बताते थे, इसका मतलब यह नहीं है कि वो ईश्वर को नहीं मानते थे।   लेकिन दुनियाँ को पाखंड और आडंबरो से बचाना चाहते थे। वह हमेशा बरा

धर्म को लेकर क्या थे कार्ल मार्क्स के विचार?

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कार्ल हेनरिक मार्क्स का जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी के प्रुसिया में हुआ था। वे जर्मन दार्शनिक, राजनीतिक अर्थव्यवस्था के आलोचक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाजशास्त्री, राजनीतिक सिद्धांतकार, पत्रकार और समाजवादी क्रांतिकारी थे। कार्ल धर्म को एक बहुत खतरनाक नशा मानते थे। वह कहते थे। इंसान धर्म को बनाता है, धर्म इंसान को नहीं। दरअसल, धर्म इंसान की आत्म-व्याकुलता और आत्म-अनुभूति है, जिसने या तो अभी तक खुद को नहीं पाया है या फिर पा कर खुद को पुनः खो दिया है। लेकिन इंसान कोई अमूर्त वस्तु नहीं है, जो दुनिया के बाहर कहीं बैठा है। इंसान इंसानों, राज्य, समाज की दुनिया है। यह राज्य, यह समाज धर्म पैदा करता है, एक विकृत विश्व चेतना पैदा करता है, क्यों कि वे एक विकृत दुनिया हैं। धर्म इस दुनिया का समान्यीकृत सिद्धांत है, इसका विश्वकोशीय सारांश है, लोकप्रिय रूप में इसका तर्क है-  धर्म दमित प्राणी की आह है, एक बेरहम दुनिया का एहसास है, वैसे ही, जैसे यह गैर - आध्यात्मिक स्थितियों की प्रेरणा है। धर्म एक नशा है "यह लोगों की अफीम है।"  लोग धर्म के द्वारा उत्पन्न झूठी खुशी से छुटकारा पाए बिना स

साथियों के नाम भगत सिंह का आखिरी खत!

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                                                    22 मार्च, 1931 साथियों स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, जिसे मैं छुपाना नहीं चाहता, लेकिन एक शर्त पर ज़िन्दा रह सकता हूँ कि मैं कैद या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों व कुर्बानियों ने मुझे ऊँचा उठा दिया, इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्तिथि में इससे ऊँचा मैं हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धम पड़ जाएगा या सम्भवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी पर चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश के लिए कुर्बानी देनें वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी। हाँ एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हज़ारवां भाग भी पूरा नही

गाँधी ने किया पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए अनशन?

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जब भी भारत के राजनीतिक इतिहास की बात आती हैं आपने अक्सर सुना या पढ़ा होगा कि हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नें 1948 में पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलाने के लिए अनशन किया था। लेकिन यह कितना सच है यह जानने की कोशिश शायद आपने कभी नहीं की होगीं। क्योंकि इतना सुनने भर से कहीं ना कहीं आपके विचार इस बात से सहमत होने लगते हैं। क्योंकि आज की भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों ने अपने अपने फायदे के लिए महापुरुषों की छवि को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्हें पता है कि अगर इतिहास को झूठलाया नहीं गया तो वो आज की राजनीति में अपनी जगह नहीं बना पाएंगे और इसीलिए महापुरुषों के योगदानों को भुला कर उनके बारे में भ्रामक भ्रांतियां फैलाई गई और उन्हें बदनाम करने की भरसक कोशिशें की गई। तो ऐसे ही एक मुद्दे पर आज बात करते हैं जिसमें गाँधी जी पर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने का आरोप है!  हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे के कुछ समय बाद तक दोनों देशों का एक ही रिजर्व बैंक था। और सरकारी आंकड़ों के अनुसार आज़ादी के बाद उसमे कुल 400 करोड़ रुपये थे। हमारे यहां बँटवारे का मतलब

भीष्म पितामह के जन्म के बाद उनकी माँ गंगा अपने पति शान्तनु को छोड़कर क्यों चली गई।

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भीष्म पितामह के पिता महाराज शान्तनु का जन्म उनके दादा महाप्रतापी महाराज प्रतीप के बुढ़ापे मे हुआ था। इसीलिए महाराज प्रतीप ने शान्तनु के योग्य होते ही उन्हें अपना राजपाठ सौप दिया और वानप्रस्थ आश्रम में तपस्या करने चले गये। जाते जाते उन्होंने कहा कि बेटा एक स्वर्गीय सुन्दरी तुमसे विवाह करना चाहती है। वह कभी एकांत में तुम्हें मिलेगी। तुम उससे विवाह करना और उसकी इच्छा पूरी करना यही मेरी आज्ञा है। इसके बाद प्रतीप तपस्या करने जंगल में चले गए। महाराज शान्तनु बड़ी ही योग्यता से प्रजा का पालन कर रहे थे। उनके राज्य में कोई दुखी नहीं था। सारे दुखों का उपाय वे पहले ही कर लेते थे। वे स्वयं राज्य में जाकर सबके दुःख सुख का पता लगाया करते थे। एक दिन वे घूमते हुए गंगा जी के तट पर जा पहुँचे। उन्होंने देखा कि एक लक्ष्मी के समान तेज वाली स्वर्गीय सुंदरी वहाँ पर टहल रही है। महाराज शान्तनु ने ध्यान दिया कि वह स्त्री अनुरक्त दृष्टि से उनकी ही ओर देख रही है। उस स्त्री के हृदय का भाव जानकर शान्तनु ने पूछा -  देवी तुम कौन हो? देव हो या दानव, गंधर्व कन्या हो या नाग कन्या? मनुष्यों में तो तुम्हारे जैस

आखिर क्यों भीष्म पितामह की माँ गंगा ने अपने ही सात पुत्रों को मार डाला था?

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गंगा ने अपने सात पुत्रों को क्यों मारा?   एक बार की बात है, गंगा अपने कारण ब्रह्मा द्वारा महाभिशक़ को दिए गए श्राप के बारे में सोच रही थी कि तभी उन्होंने स्वर्ग से आठों वसुओं को उतरते देखा। देखते ही उन्होंने सोचा कि ऐसा क्या कारण आन पड़ा कि वसुओं को मृत्यु लोक में आना पड़ा। गंगा के मन में बड़ा कौतूहल हुआ। उन्होंने वसुओं से पूछा- वसुओं! स्वर्ग में सब कुशल तो है ना?  तुम सब एक साथ पृथ्वी पर क्यों जा रहे हो? वसुओं ने कहा - माता हम सब मृत्युलोक मे जाकर पैदा हो ऐसा हमे शाप मिला है। हमसे अपराध तो हुआ था लेकिन इतनी कड़ी सजा मिले इतना बड़ा नहीं हुआ था। एक दिन महर्षि वसिष्ठ गुप्त रूप से संध्या वंदन कर रहे थे, हमने उन्हें पहचाना नही और बिना प्रणाम किये ही आगे बढ़ गये। उन्होंने सोचा कि हमने जान बूझकर मर्यादा का उल्लंघन किया है, और उन्होंने हमे मनुष्य योनि मे जन्म लेने का शाप दे दिया। वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष है, उनकी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती। परंतु माता! हम किसी मनुष्य स्त्री के गर्भ से जन्म नहीं लेना चाहते हैं। अब हम आपकी शरण में है और आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमे अपने गर्भ मे

क्या है CAB और NRC?

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09 दिसंबर 2019 को सरकार की ओर से गृहमंत्री अमित शाह द्वारा सदन में CAB (citizenship ammendment bill) (नागरिकता संशोधन विधेयक) प्रस्तुत किया गया। जो 13 दिसंबर 2019 तक लोकसभा, राज्यसभा तथा राष्ट्रपति द्वारा पूर्ण बहुमत से पारित कर दिया गया। पहला सवाल :- पहले तो सिर्फ NRC ही करना चाहती थी सरकार, तो अब CAB लाने की जरुरत क्यों पड़ी? जवाब :- इसी साल सरकार ने असम में NRC लागू किया। असम की जनसंख्या लगभग 3 करोड़ 30 लाख है, जिसमें से लगभग 19 लाख लोग NRC की सूची में नहीं आए। जिसमें से लगभग 14 लाख हिन्दू तथा बाकी के 5 लाख मे मुस्लिम, सीख, जैन, बोद्ध आदि समुदाय के लोग है। जिसमें लगभग 1600 करोड़ का खर्च आया। अब सरकार के सामने चुनौती आई की 14 लाख हिन्दुओ को कैसे देश से निकाले। इसीलिए वर्तमान सरकार ने नेहरु सरकार द्वारा 1955 में बनाए गए CA (citizenship act) (नागरिकता अधिनियम) का सहारा लिया और CAA (citizenship ammendment act) लाया गया। (पाठकों को भ्रमित होने की अवश्यकता नहीं है CAA और CAB एक ही है क्यों कि कोई भी BILL पास होने के बाद ACT बन जाता है)  दूसरा सवाल :- क्या ह

भगत सिंह को बचा सकते थे गाँधी जी ?

आजकल आपको देश के हर गली, मोहल्ले, कस्बों व शहरों मे गाँधी जी एवं भगतसिंह के बारे में ज्ञान बांटने वाले लोग मिल जाएंगे। लेकिन वास्तविकता मे ये गाँधी जी एवं भगत सिंह को कितना जानते हैं ये उन्हें खुद भी नहीं पता है। इन्हीं के नाम पर हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनीति चमकाने में लगा है। कोई इनकी विचारधारा के विरोधी है तो कोई समर्थक। देश में इन महापुरुषों की छवि बिगाडने की भरपूर कोशिश की जा रही है। आज देश में भगत सिंह बनने की बातें तो चाय की दुकान पर बैठा हर लफद्दूलाल करता है लेकिन उनके आदर्शो को कोई नहीं मानता। क्योंकि वो राजनीतिक दलों के सिखाये बताये ज्ञान के बल पर भगत सिंह बनना चाहते हैं। अपना दिमाग लगा कर खुद से कुछ पढ़ लिख कर कुछ जानने की कोशिश नहीं करते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि देश का हर युवा समझता है कि हिंसक होकर लोगों को मार काट कर ही भगत सिंह बना जा सकता है। और यह वह अपने आप से नहीं समझता है उसे यह समझाया जा रहा है। इससे भी दुर्भाग्य की बात तो यह है कि भगतसिंह तो हर कोई बनना चाहता है लेकिन गाँधी कोई नहीं। सही भी है एक गाल पर थप्पड़ खा कर दूसरा गाल आगे कौन करना चाहे

इंदिरा गाँधी के पति फिरोज़ गाँधी या खान ?

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सबसे पहले पाठकों को बता दे कि लेखक ने यह जानकारी दक्षिणी स्वीडन के पत्रकार व लेखक बर्टिल फाल्क की किताब फिरोज़ - दी फॉरगॉटन गाँधी एवं विकीपीडिया से प्राप्त की है ।  फिरोज़ गाँधी का जन्म 12 सितंबर 1912 को मुम्बई के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जहांगीर गाँधी तथा माता का नाम रतिमाई था। फिरोज़ के पिता जहांगीर गुजरात के भरोच प्रांत के कोटपारीवाड के रहने वाले थे। वे एक इन्जीनियर थे। जहांगीर गांधी के पिता इत्र बेचा करते थे, इत्र का अर्थ होता है गंध और इसीलिए गंध बेचने वालो को गांधी कहा जाने लगा।(जिस प्रकार नहर के किनारे रहने वाले कश्मीरी पंडितों को नेहरू कहा जाता है।)  फिरोज व उनका परिवार पारसी धर्म के अनुयायी थे। (पारसी धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में से एक हैं। पारसी धर्म अवेस्ता नामक धर्म ग्रंथ पर आधारित है इसकी भाषा आवेस्तन है जो संस्कृत से मिलती है । इसके संस्थापक ज़रथुष्ट्र थे।) फिरोज़ एक पत्रकार एवं सांसद थे। 1920 में उनके पिता की मृत्यु के बाद वे अपने परिवार सहित अपनी मौसी के पास इलाहाबाद चले गए। इलाहाबाद से ही उन्होंने अपनी स्नातक की उपाधि प्राप्त की।