वह राजा जिसे अंग्रेजों से मिलती थी 8 लाख रुपये पेंशन!

भारत के इतिहास में कई राजा राजवाङे हुए। इनमे से कुछ ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारी और ग़ुलामी की बेड़ियों में खुद को बांध दिया और अंग्रेजो से पेंशन स्वीकार की जबकि कुछ ने आजाद रहने की बात कही और अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई लड़ी। अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ग़ुलामी स्वीकारने वालों में एक नाम आता है पुणे रियासत का जिसके पहले पेशवा बालाजी विश्वनाथ थे और अंतिम पेशवा श्रीमंत नाना साहब। नाना साहब का नाम किसने नहीं सुना होगा। ये वही नाना साहब थे जिन्होंने महारानी लक्ष्मी बाई को अपनी छोटी बहन की भांति मानकर अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी की शिक्षा दी थी।
नाना साहब के पिता पेशवा बाजीराव के कोई सन्तान नहीं थीं इसीलिये उन्होंने नाना साहब को ढाई साल की उम्र में दत्तक (गोद लेना) स्वीकारा था। जब देश की छोटी बड़ी सभी रियासतें अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थी लड़ रही थी। तब सन 1818 में पेशवा बाजीराव नें अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ना सिर्फ पैंशन स्वीकार की जबकि दुसरी रियासतों को गिराने में अंग्रेजो का भरपूर सहयोग किया। जब अफगानिस्तान की लड़ाई में अंग्रेजों को धन की कमी पड़ी तब बाजीराव ने अपनी बचत में से 5 लाख रुपये अंग्रेजों को भेजे। जब पंजाब में सिख राष्ट्र से अँग्रेजों का संघर्ष चल रहा था तब लगने लगा कि मराठा मंडल सिखों से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध उठेगा। परन्तु इसके विपरित बाजीराव ने अपने खर्च से 1 हजार पैदल सैनिक और 1 हजार घुड़सवार अंग्रेजों की सहायता के लिए भेजे। बाजीराव के पास अपना शनिवार वाड़ा बचाने के लिए सैनिक नहीं थे लेकिन सिखों से लड़ने के लिए अंग्रेजों की सहायता के लिए उसने सैनिक भेज दिये।
अंग्रेजों के प्रति अपनी इसी वफादारी के चलते पेशवा बाजीराव को 8 लाख रुपये सालाना पेंशन मिलने लगी। मगर बाजीराव के मरणोपरांत अँग्रेजों नें अपना रंग दिखाया और बाजीराव के दत्तक पुत्र पेशवा श्रीमंत नाना साहब को यह पेंशन देने से इंकार कर दिया। यही 8 लाख रुपये नहीं दिए जाने के कारण नाना साहब ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया। 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध हुई उस क्रांति का एक कारण यह भी बना। मगर इस क्रांति में नाना साहब अंग्रेजो से लड़ते हुए शाहिद हो गए।

स्रोत - 1857 का स्वातंत्र्य समर - p. No. - 55 - 57



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