अवध को भारी पड़ी अंग्रेजों की दोस्ती!
जैसे कि आपने इसके पहले के लेख वह राजा जिसे अंग्रेजों से मिलती थी 8 लाख रुपये पेंशन!
में पढ़ा कि जिस किसी के भी अंग्रेजो से स्नेह भरे संबंध थे उन्हीं के गले अंग्रेजों ने मीठी छुरी से रेते थे। पुणे के पेशवा बाजीराव की भाँति अंग्रेजों से अवध के नवाब के सम्बंध भी स्नेहपूर्ण थे।हर कठिन अवसर पर नवाब ने अंग्रेजों की सहायता की थी। जब अंग्रेजों की जेब में पैसा नहीं था तब नवाब ने उन्हें पैसा दिया और जब बड़ी बड़ी लड़ाइयों में अंग्रेजों के पास खाने को कुछ नहीं था तो उन्हें अनाज भिजवाया। नवाब का राज्य बहुत ही उपजाऊ, सुन्दर और धनी था। साथ ही अवध जैसे सुन्दर प्रदेश में कहीं कहीं 20 तो कहीं कहीं 10 फीट पर ही भरपूर जल भंडार थे, सारा प्रदेश हरे भरे खेतों से भरा हुआ था। अमराई की छाया से शीतल, बाँस के ऊँचे ऊँचे वन, इमली की घनी छाया, नारंगी की खुशबु, अंजीर के वृक्षों की विचित्रता और पुष्पराग का परिमल आदि प्रकृति की अवर्णनीय सुंदरता अवध के राज्य में फैली हुई थी। ऐसे संपन्न और धनी राज्य पर कौन अपना कब्जा नहीं चाहेगा।
अवध जैसे संपन्न राज्य पर अपना अधिग्रहण करने के लिए अंग्रेजों ने कई चालें चली और कई षड्यंत्र रचें। ऐसा ही षड्यंत्र कारी समझोता अवध और अंग्रेजों के बीच सन 1801 में हुआ। जिसमें नवाब को अपनी सेना हटाकर राज्य में कंपनी की सेना नियुक्त करना थी। इसके पहले के एक समझौते के कारण नवाब पहले से ही कंपनी की सेना के लिए 75 लाख रुपये प्रति वर्ष दे ही रहा था। साथ ही उसे एक और सेना का खर्च उठाने का आदेश झेलना पड़ा। सरकार की इस डकैती से नवाब का खजाना संकट में आ गया था। दोनों सेना का खर्च उठाने की क्षमता नवाब के ख़ज़ाने में नहीं है यह बात अंग्रेज भलीभांति जानते थे।
एक समझौता और हुआ जिसके तहत नवाब प्रजा को सुखी और संपन्न रखें और जो भी काम करे उसमे कंपनी के अधिकारियों से सलाह मशविरा करे। इधर नवाब का खजाना खाली हो रहा था उधर जरूरतों को पूरा करने के लिए यदि वह कर लगाने या बढ़ाने की बात करता तो कंपनी उस पर गुर्राती कि वह प्रजा पर कर के नाम पर अत्याचार कर रहा है। धीरे-धीरे नवाब का खजाना खाली हो गया और कंपनी सेना का व्यय वसूलने के नाम पर नवाब के राज्य को टुकड़े - टुकड़े मे उससे छीनती गई।
अंत में कंपनी की ओर से राज्य पर इसलिये अधिग्रहण कर लिया गया क्यों कि नवाब अपने राज्य को सुचारू रूप से संचालित करने में सक्षम नहीं था और वह प्रजा का बिल्कुल ध्यान नहीं रखता था।
स्रोत : -
1857 का स्वातंत्र्य समर
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