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धर्म को लेकर क्या थे कार्ल मार्क्स के विचार?

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कार्ल हेनरिक मार्क्स का जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी के प्रुसिया में हुआ था। वे जर्मन दार्शनिक, राजनीतिक अर्थव्यवस्था के आलोचक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाजशास्त्री, राजनीतिक सिद्धांतकार, पत्रकार और समाजवादी क्रांतिकारी थे। कार्ल धर्म को एक बहुत खतरनाक नशा मानते थे। वह कहते थे। इंसान धर्म को बनाता है, धर्म इंसान को नहीं। दरअसल, धर्म इंसान की आत्म-व्याकुलता और आत्म-अनुभूति है, जिसने या तो अभी तक खुद को नहीं पाया है या फिर पा कर खुद को पुनः खो दिया है। लेकिन इंसान कोई अमूर्त वस्तु नहीं है, जो दुनिया के बाहर कहीं बैठा है। इंसान इंसानों, राज्य, समाज की दुनिया है। यह राज्य, यह समाज धर्म पैदा करता है, एक विकृत विश्व चेतना पैदा करता है, क्यों कि वे एक विकृत दुनिया हैं। धर्म इस दुनिया का समान्यीकृत सिद्धांत है, इसका विश्वकोशीय सारांश है, लोकप्रिय रूप में इसका तर्क है-  धर्म दमित प्राणी की आह है, एक बेरहम दुनिया का एहसास है, वैसे ही, जैसे यह गैर - आध्यात्मिक स्थितियों की प्रेरणा है। धर्म एक नशा है "यह लोगों की अफीम है।"  लोग धर्म के द्वारा उत्पन्न झूठी खुशी से छुटकारा पाए बिना स

साथियों के नाम भगत सिंह का आखिरी खत!

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                                                    22 मार्च, 1931 साथियों स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, जिसे मैं छुपाना नहीं चाहता, लेकिन एक शर्त पर ज़िन्दा रह सकता हूँ कि मैं कैद या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों व कुर्बानियों ने मुझे ऊँचा उठा दिया, इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्तिथि में इससे ऊँचा मैं हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धम पड़ जाएगा या सम्भवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी पर चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश के लिए कुर्बानी देनें वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी। हाँ एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हज़ारवां भाग भी पूरा नही

गाँधी ने किया पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए अनशन?

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जब भी भारत के राजनीतिक इतिहास की बात आती हैं आपने अक्सर सुना या पढ़ा होगा कि हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नें 1948 में पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलाने के लिए अनशन किया था। लेकिन यह कितना सच है यह जानने की कोशिश शायद आपने कभी नहीं की होगीं। क्योंकि इतना सुनने भर से कहीं ना कहीं आपके विचार इस बात से सहमत होने लगते हैं। क्योंकि आज की भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों ने अपने अपने फायदे के लिए महापुरुषों की छवि को धूमिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उन्हें पता है कि अगर इतिहास को झूठलाया नहीं गया तो वो आज की राजनीति में अपनी जगह नहीं बना पाएंगे और इसीलिए महापुरुषों के योगदानों को भुला कर उनके बारे में भ्रामक भ्रांतियां फैलाई गई और उन्हें बदनाम करने की भरसक कोशिशें की गई। तो ऐसे ही एक मुद्दे पर आज बात करते हैं जिसमें गाँधी जी पर पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने का आरोप है!  हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बँटवारे के कुछ समय बाद तक दोनों देशों का एक ही रिजर्व बैंक था। और सरकारी आंकड़ों के अनुसार आज़ादी के बाद उसमे कुल 400 करोड़ रुपये थे। हमारे यहां बँटवारे का मतलब