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गाँधी, नेहरू और अम्बेडकर ने नहीं लड़ा भगत सिंह का मुकदमा?

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 जैसे कि आजकल सोशल मीडिया का ज़माना है और आपको रोज़ कुछ नयी, रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी आसानी से मिल जाती है और इसी ज्ञान के बलबूते आजकल हर कोई अपने आपमें एक पीएचडी होल्डर हैं। लेकिन क्या आप इन जानकारियों की विश्वसनीयता के बारे में ज़रा भी सोचते विचारते है और अगर नहीं तो जरा सोचा करे और इसकी सत्यता को जाँचने की कोशिश अवश्य किया करें। कोई भी ख़बर आपको सोशल मीडिया के माध्यम से प्राप्त हुई हो चाहे वह आपकी विचारधारा के अनुसार आपको पूरी तरह गलत लगे या पूरी तरह सही लगे एक बार उसकी सच्चाई जानने की कोशिश जरूर करें। तो आइये आज हम बात करतें हैं गाँधी, नेहरू और अम्बेडकर ने बेरीस्टर होते हुए भी क्यों नहीं लड़ा भगत सिंह का मुकदमा?  इसके लिए हम सबसे पहले बात करते हैं भगतसिंह के जीवन की।  भगत सिंह का जन्म  सितंबर 1907 में पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गाँव में हुआ था जो अब पाकिस्तान में आता है। 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ उस समय भगत सिंह की उम्र 12 वर्ष थीं। इस हत्याकांड की खबर सुनते ही वह स्कूल से भागते हुए सीधे जलियांवाला बाग़ पहुचें थे। जहाँ सेंकड़ों लोगों को मरा हुआ देखकर

विद्यार्थियों के नाम जैल से भगत सिंह का पत्र।

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भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की ओर से जैल से भेजा गया यह पत्र 19 अक्तूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ लाहौर के दूसरे अधिवेशन में पढ़कर सुनाया गया था। अधिवेशन के सभापति नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। जो 22 अक्तूबर, 1929 को 'द ट्रिब्यून' नामक अखबार में प्रकाशित हुआ था। इस पत्र में वे लिखते हैं, इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएं। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आजादी के लिए जबरदस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी है।  क्या परिक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएँगे? नौजवानों को क्रांति का संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है। फैक्टरी, कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण अंसकद हो जाएगा। आज देश के प्र

आपको कोई अधिकार नहीं भगत सिंह का नाम लेने का!

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जैसा कि आपने इस लेख के शीर्षक में पढ़ा आपको कोई अधिकार नहीं है भगत सिंह का नाम तक लेने का। अगर आप भगत सिंह को सिर्फ इसलिए जानते या मानते हैं क्यों कि वो देश को आजाद कराने के लिए हँसते हुए फाँसी के फंदे पर झूल गए थे। या इसलिए कि उन्होंने ब्रिटिश अधिकारी सौंडर्स की हत्या की थी या इसलिए  क्यों कि उन्होंने असेम्बली में बम विस्फोट कर खुद की गिरफ़्तारी दी थी तो जी हाँ आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप भगत सिंह का नाम ले और बड़ी बड़ी बाते करें। इस लेख को आगे पढ़ने पर हो सकता है आपको अपने आप पर शर्मिंदगी महसुस हो या आप लेखक को कोसे या आप भगत सिंह को मानना ही छोड़ दें। आज आप जिस भगत सिंह को जानते या मानते हैं भगत सिंह ऐसे कभी नहीं थे। न ही वो ऐसा बनना चाहते थे। भगत सिंह ने कभी इस देश के युवा को बंदूक उठाने के लिए प्रेरित नहीं किया जब कि भगत सिंह तो चाहते थे कि इस देश का हर एक युवा कलम उठाए। पढ़े - लिखे और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करे। भगत सिंह खुद को नास्तिक बताते थे, इसका मतलब यह नहीं है कि वो ईश्वर को नहीं मानते थे।   लेकिन दुनियाँ को पाखंड और आडंबरो से बचाना चाहते थे। वह हमेशा बरा

धर्म को लेकर क्या थे कार्ल मार्क्स के विचार?

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कार्ल हेनरिक मार्क्स का जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी के प्रुसिया में हुआ था। वे जर्मन दार्शनिक, राजनीतिक अर्थव्यवस्था के आलोचक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, समाजशास्त्री, राजनीतिक सिद्धांतकार, पत्रकार और समाजवादी क्रांतिकारी थे। कार्ल धर्म को एक बहुत खतरनाक नशा मानते थे। वह कहते थे। इंसान धर्म को बनाता है, धर्म इंसान को नहीं। दरअसल, धर्म इंसान की आत्म-व्याकुलता और आत्म-अनुभूति है, जिसने या तो अभी तक खुद को नहीं पाया है या फिर पा कर खुद को पुनः खो दिया है। लेकिन इंसान कोई अमूर्त वस्तु नहीं है, जो दुनिया के बाहर कहीं बैठा है। इंसान इंसानों, राज्य, समाज की दुनिया है। यह राज्य, यह समाज धर्म पैदा करता है, एक विकृत विश्व चेतना पैदा करता है, क्यों कि वे एक विकृत दुनिया हैं। धर्म इस दुनिया का समान्यीकृत सिद्धांत है, इसका विश्वकोशीय सारांश है, लोकप्रिय रूप में इसका तर्क है-  धर्म दमित प्राणी की आह है, एक बेरहम दुनिया का एहसास है, वैसे ही, जैसे यह गैर - आध्यात्मिक स्थितियों की प्रेरणा है। धर्म एक नशा है "यह लोगों की अफीम है।"  लोग धर्म के द्वारा उत्पन्न झूठी खुशी से छुटकारा पाए बिना स

साथियों के नाम भगत सिंह का आखिरी खत!

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                                                    22 मार्च, 1931 साथियों स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, जिसे मैं छुपाना नहीं चाहता, लेकिन एक शर्त पर ज़िन्दा रह सकता हूँ कि मैं कैद या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों व कुर्बानियों ने मुझे ऊँचा उठा दिया, इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्तिथि में इससे ऊँचा मैं हरगिज नहीं हो सकता। आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धम पड़ जाएगा या सम्भवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी पर चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश के लिए कुर्बानी देनें वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी। हाँ एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हज़ारवां भाग भी पूरा नही