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Showing posts from October, 2019

भगत सिंह को बचा सकते थे गाँधी जी ?

आजकल आपको देश के हर गली, मोहल्ले, कस्बों व शहरों मे गाँधी जी एवं भगतसिंह के बारे में ज्ञान बांटने वाले लोग मिल जाएंगे। लेकिन वास्तविकता मे ये गाँधी जी एवं भगत सिंह को कितना जानते हैं ये उन्हें खुद भी नहीं पता है। इन्हीं के नाम पर हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनीति चमकाने में लगा है। कोई इनकी विचारधारा के विरोधी है तो कोई समर्थक। देश में इन महापुरुषों की छवि बिगाडने की भरपूर कोशिश की जा रही है। आज देश में भगत सिंह बनने की बातें तो चाय की दुकान पर बैठा हर लफद्दूलाल करता है लेकिन उनके आदर्शो को कोई नहीं मानता। क्योंकि वो राजनीतिक दलों के सिखाये बताये ज्ञान के बल पर भगत सिंह बनना चाहते हैं। अपना दिमाग लगा कर खुद से कुछ पढ़ लिख कर कुछ जानने की कोशिश नहीं करते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि देश का हर युवा समझता है कि हिंसक होकर लोगों को मार काट कर ही भगत सिंह बना जा सकता है। और यह वह अपने आप से नहीं समझता है उसे यह समझाया जा रहा है। इससे भी दुर्भाग्य की बात तो यह है कि भगतसिंह तो हर कोई बनना चाहता है लेकिन गाँधी कोई नहीं। सही भी है एक गाल पर थप्पड़ खा कर दूसरा गाल आगे कौन करना चाहे

इंदिरा गाँधी के पति फिरोज़ गाँधी या खान ?

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सबसे पहले पाठकों को बता दे कि लेखक ने यह जानकारी दक्षिणी स्वीडन के पत्रकार व लेखक बर्टिल फाल्क की किताब फिरोज़ - दी फॉरगॉटन गाँधी एवं विकीपीडिया से प्राप्त की है ।  फिरोज़ गाँधी का जन्म 12 सितंबर 1912 को मुम्बई के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जहांगीर गाँधी तथा माता का नाम रतिमाई था। फिरोज़ के पिता जहांगीर गुजरात के भरोच प्रांत के कोटपारीवाड के रहने वाले थे। वे एक इन्जीनियर थे। जहांगीर गांधी के पिता इत्र बेचा करते थे, इत्र का अर्थ होता है गंध और इसीलिए गंध बेचने वालो को गांधी कहा जाने लगा।(जिस प्रकार नहर के किनारे रहने वाले कश्मीरी पंडितों को नेहरू कहा जाता है।)  फिरोज व उनका परिवार पारसी धर्म के अनुयायी थे। (पारसी धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में से एक हैं। पारसी धर्म अवेस्ता नामक धर्म ग्रंथ पर आधारित है इसकी भाषा आवेस्तन है जो संस्कृत से मिलती है । इसके संस्थापक ज़रथुष्ट्र थे।) फिरोज़ एक पत्रकार एवं सांसद थे। 1920 में उनके पिता की मृत्यु के बाद वे अपने परिवार सहित अपनी मौसी के पास इलाहाबाद चले गए। इलाहाबाद से ही उन्होंने अपनी स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

गाँधी जी की कमाल की क्षमाशीलता एवं सेवा भावना।

गाँधी जी की विद्यालयी शिक्षा पूरी हो गई थी उनकी लंदन जाने की तैयारियां भी पूरी हो गई थी। कुछ रूपये पैसे का इंतजाम भी हो गया था और बाकि के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के गहने साथ मे रख लिये थे। लेकिन जब वे राजकोट से चलकर कर बंबई पहुचे तो पता चला कि समुद्र में तूफान उठा हुआ है। इसके बाद 5-6 महीने बाद ही जाना हो पाएगा। गाँधी जी के पास वापस राजकोट लौट जाने के सिवा कोई चारा नहीं था। उन दिनों गाँधी के बहन बहनोई बम्बई मे रहा करते थे। तो उन्होंने अपना सारा रुपया पैसा और गहने अपने बहनोई के पास रख दिए और राजकोट लौट गए। काठियावाडी बनिया समाज गाँधी जी के लंदन जाने के खिलाफ था। लेकिन गाँधी जी और उनके बड़े भाई लक्ष्मी दास गाँधी ने समाज के लोगों की एक ना सुनी। इसीलिये गाँधी जी वा उनके परिवार को समाज का विरोध झेलना प़डा तथा उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया । 5 महीने बाद गाँधी जी लंदन जाने के लिए बम्बई पहुचे तो अपने बहनोई के घर गए और अपना रुपया पैसा और गहने मांगे। तो उनके बहनोई ने यह कहते हुए रुपया पैसा और गहने लौटाने से इन्कार कर दिया कि समाज ने तुम्हारा बहिष्कार किया है औरअग र मेंने तुम्हें  रकम लौटा

तानाशाह मोहन दास करमचंद गाँधी ?

गाँधी जी को अफ्रीका में 7 साल हो चुके थे। वहा चल रहा बोअर युद्ध भी समाप्त हो गया था लोगों में भाईचारा पैदा हो गया था। स्कूल और पुस्तकालय खुल गए थे। छोटा मोटा अस्पताल भी चल रहा था। लोग शिक्षा के महत्व को समझने लगे थे। उन्होंने सोचा कि उनका काम पूरा हो गया और  यहा जब कुछ करने को ही नहीं बचा तो हिन्दुस्तान लौट जाना ही उचित होगा। आखिर अपने देश को भी मेरी जरूरत है। यही सब सोचते हुए उन्होंने भारत लौटने का निर्णय लिया। यह खबर जब नेटाल के लोगों तक पहुंची तो उन्होंने गाँधी जी के सम्मान में एक विदाई समारोह का आयोजन किया। ज्यादातर लोग अपनी हैसियत और श्रद्धा के हिसाब से उपहार भी लाए थे। उपहार में अब्दुल कादिर ने हीरे का पिन दिया था, रूस्तम जी पारसी ने सोने की माला, सावरन का बटुआ तथा 7 सोने के सिक्के दिए। यह सब लेना गाँधी जी को ठीक नहीं लग रहा था वो सारे उपहार लेकर मेज पर रखते जा रहे थे। दादा अबदुल्ला कंपनी की ओर से सोने की घड़ी दी गई। उसके बाद नेटाल भारतीय समाज की ओर से हीरे की एक अंगुठी दी गई। गुजराती हिन्दुओ की तरफ़ से सोने का एक वजनी हार कस्तूर बाई को दिया गया था। कस्तूर बाई को एक और सोने का

दक्षिण अफ्रीका में क्यों ट्रेन से फेंक दिये गए थे महात्मा गाँधी?

गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका एक साल के करार नामे पर दादा अबदुल्ला कंपनी मे काम करने गए थे। नेटाल पहुचने के कुछ दिन बाद दादा अबदुल्ला को उनके वकील मी. बेकर जो प्रिटोरिया मे उनका एक मुकदमा देख रहे थे का पत्र मिला जिसमें उन्होंने मामले से संबंधित जानकारी लेने के लिए स्वयं दादा अबदुल्ला या उनके किसी प्रतिनिधि को वहा भेजने की बात कही। अब चुकी गाँधी जी एक बैरिस्टर थे तो दादा अबदुल्ला ने उन्हें ही भेजने का निर्णय लिया। उन्होंने गाँधी जी को बताया कि तुम्हें प्रिटोरिया जाकर वहा चल रहे मामले को समझने में मी. बेकर की मदद करना होगी। गाँधी जी जाने के लिए तैयार हो गए। दादा अबदुल्ला ने उनका फर्स्ट क्लास का टिकट करवा दिया और स्टेशन तक छोड़ने गए। दादा अबदुल्ला ने फर्स्ट क्लास का टिकट तो करवा दिया लेकिन कुछ असमंजस में थे। फिर पूरा डिब्बा खाली देख कर कुछ राहत की साँस ली। क्योंकि नेटाल मे हर हिन्दुस्तानी व्यक्ति को कुली कहा जाता था फिर वह पढ़ा लिखा हो या अनपढ़। उन्हें फर्स्ट व सेकंड क्लास मे सफर करने का अधिकार नहीं था। वे सिर्फ वेन (समान्य कोच) मे ही सफर कर सकते थे। वहा के गोरे लोगों के मुताबिक हर काला व्यक

जानिए मोहनदास को महात्मा बनाने मे उनके बड़े भाई लक्ष्मीदास गाँधी का योगदान।

भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को तो सभी जानते हैं लेकिन उनके बड़े भाई लक्ष्मीदास गाँधी के बारे में बहुत ही कम लोग जानते होंगे। गाँधी जी को मोहनदास से महात्मा बनाने में लक्ष्मी दास गाँधी का बहुत बड़ा योगदान रहा । पिता की मृत्यु के बाद परिवार के खर्च व कार्यो की जिम्मेदारी लक्ष्मी भाई के कंधों पर आ गई थी। मोहनदास अभी छोटा था और अपनी पढ़ाई करना चाहता था। इसीलिए लक्ष्मी भाई ने कभी भी मोहनदास पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डाला। मोहनदास गाँधी जब कानून पढ़ने लंदन गए तो लक्ष्मी भाई ने न सिर्फ रुपये-पैसों का इंतजाम किया बल्कि अपनी ही समाज का विरोध भी झेला। समाज के लोगों का मानना था कि मोहनदास लंदन जाकर शराब व मांस का सेवन करने लगेगा। इसीलिए समाज ने मोहनदास को समाज से बेदखल कर दिया था। और समाज के वरिष्ठ लोगों ने आदेश दिया कि समाज का जो कोई भी व्यक्ति मोहनदास से किसी भी प्रकार का कोई भी संबंध रखेगा या मिलने की कोशिश करेगा उसे 1 रूपया 4 आना दंड स्वरुप देना होगा। समाज के विरोध के बावजूद उन्होंने मोहनदास को लंदन भेजा और बंबई तक छोड़ने भी आए। मोहनदास की शादी बचपन में ही हो गई थी और लंदन जाने

ऐसा क्या हुआ जो गाँधी जी ने छोड़ दी अदालत।

गाँधी जी जब नेटाल के डरबन बन्दरगाह पर उतरे तो जिस कंपनी के काम से वे वहां गए थे उसके मालिक दादा अबदुल्ला उन्हें लेने पहुंचे। अब चुकी गाँधी जी लंदन से कानून पढ़ कर आए थे तो उनका पहनावा भी अंग्रेजो की तरह ही था। वह जब जहाज से उतरे तो फ्राक कोट पहने हुए थे। बस दो ही चीजे उन्हें अंग्रेजो से अलग करती थी एक उनका रंग दूसरी उनके माथे पर बँधी पगड़ी। हिन्दुस्तानी सभ्यता के अनुसार गाँधी जी उन दिनों अपने सर पर पगड़ी बाँधा करते थे। अंग्रेजी पोशाक मे होने की वजह से दादा अबदुल्ला गाँधी जी को पहचान नहीं पाए और गाँधी जी ने भी उन्हें नहीं पहचाना। लेकिन जब पहचाना और एक दूसरे से मिले तो गाँधी जी का अंग्रेजी सूट - बूट देख कर दादा अबदुल्ला धीरे से अपने मित्र के कान में फुसफुसाए कि मुझे नहीं पता था मुझे एक सफेद हाथी पालना होगा। यह बात गाँधी जी ने सुन ली लेकिन कुछ कहा नहीं।  डरबन पहुचने के दो तीन दिन बाद ही दादा अबदुल्ला कंपनी के एक मामले की सुनवाई होनी थी तो दादा अबदुल्ला गाँधी जी को भी अपने साथ ले गए। अदालत में भी गाँधी जी उसी पोशाक में सर पर पगड़ी बाँध कर गए थे। अदालत में पहुचते ही न्यायाधीश ने उन्हें गो

क्यों गए थे गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका?

लंदन से लौटने के बाद गाँधी जी एक पास शुदा बैरिस्टर हो गए थे। इसीलिए परिवार के लोगों की उम्मीदें उनसे बढ़ गई थी। खास कर उनके भाई लक्ष्मी दास गाँधी की। उन्हें लगने लगा था कि मोहनदास के लंदन से कानून पढ़ कर आने के बाद अब घर में रुपया-पैसा आने लगेगा। इसीलिए गाँधी जी जब लंदन से लौटे तो उनके भाई ने घर में सारे इंतजाम अंग्रेजो की तरह करवा दिये थे। जिससे घर के खर्चों में काफ़ी इजाफ़ा हो गया था। लेकिन जब गाँधी जी लौटे तो उन्हें सिर्फ इंग्लैंड के कानून की ही जानकारी थी। हिन्दुस्तान के कानून को समझने के लिए उन्हें अभ्यास की आवश्यकता थी इसीलिए वे बंबई चले गए। वहा उनके मित्र ने उन्हें बताया कि कोई भी मुकादम लेने के लिए उन्हें बिचौलियों से संपर्क करना होगा और उन्हें दलाली की रकम देनी होगी जो गाँधी जी को मंजूर नहीं था। कुछ दिनों में ही उन्हें उनका पहला मुकदमा मिला जो बहुत ही साधारण सा था। इसमे भी बिचौलिये ने उनसे अपनी रकम मांगी लेकिन गाँधी जी ने मना कर दिया। पहले दिन जब गाँधी जी अदालत गए तो प्रैक्टिस नहीं होने के कारण कुछ सवाल जवाब नहीं कर पाए और उसी दिन उन्होंने वह मुकदमा छोड़ दिया और जो ₹30 फीस ली

महात्मा गाँधी ने कैसे बसाया फीनिक्स शहर?

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दरअसल महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो उन्होंने वहा रह रहे भारतीयों तक जानकारी पहुचाने के लिये मदनजीत नामक एक व्यक्ति के साथ साझेदारी करके एक अखबार शुरू किया था। अब चुकी उसमे भारतीयों के हित की बात हुआ करती थी तो उसका नाम रखा गया इंडियन ओपिनियन। जो कुछ निजी कारणों से ज्यादा दिन चल नहीं पाया। तो गाँधी जी ने अपना स्वयं का निजी अखबार शुरू करना चाहा। उसके लिए उन्हें कुछ जमीन की तलाश थी। इसके लिए उन्होंने अखबारों में इश्तिहार दिए जिससे उन्हें 20 एकड़ जमीन के बारे में जानकारी मिली उसी जमीन से लगी हुई 80 एकड़ जमीन भी बेची जा रही थी। तो गाँधी जी ने अपनी कमाई के पैसों से 100 एकड़ जमीन खरीद ली। जिसके लिए उन्होंने 1000 पौंड का निवेश किया। जमीन खरीदने के बाद वहा एक छाप खाना खोला गया। अब इतनी जमीन खरीदने के बाद वहा रहने के लिए सिर्फ चार ही लोग थे। मगन लाल (गाँधी जी के भतीजे), मशीन मैन गोविंदा, मी. वेस्ट और चौथे स्वयं गाँधी जी। ऐसे में गाँधी जी ने वहां कुछ घर बनवाने का निर्णय लिया और उन्हें जोहानसबर्ग की गंदी बस्तियों में रह रहे भारतीयों मे बाट दिया और बाकी की ज़मीन उन्हीं लो

क्यों महात्मा गाँधी को कर दिया था अपनी ही समाज ने बेदखल?

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बात है 1887 की, जब गाँधी जी ने अपनी विद्यालयी शिक्षा पूरी कर भावनगर के श्यामलदास महाविद्यालय में दाखिला लिया। श्यामलदास महाविद्यालय उस समय के निम्न स्तरीय महाविद्यालयों में से एक था। लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने की वजह से गाँधी जी ने श्यामलदास महाविद्यालय मे दाखिल लिया था। अपना पहला सेमेस्टर पूरा होने के बाद गाँधी जी घर आये हुए थे। उन्हीं दिनों गाँधी जी के पिता जी के एक करीबी मित्र जोशी जी का उनके घर आना हुआ। गाँधी जी के परिवार से अच्छे संबंध होने की वजह से पिता की मृत्यु के बाद भी जोशी जी उनके घर मिलने आया करते थे। जब उन्होंने गाँधी जी से उनकी पढ़ाई के विषय में जानकारी ली तो उन्होंने गाँधी जी के बड़े भाई को कहा कि ज़माना बदल गया है और श्यामलदास एक निम्न स्तर का महाविद्यालय है। फिर गाँधी जी से कहा कि अगर तुम अपने पिता की तरह किसी रियासत मे दीवान बनना चाहते हो तो लंदन जाकर कानून की पढ़ाई करो। दरअसल जोशी जी का बेटा भी लंदन में कानून पढ़ रहा था। तो उन्होंने गाँधी जी के बड़े भाई को आश्वासन दिया कि उनका बेटा वहा पहले से ही है जो मोहन दास को किसी भी प्रकार की परेश

गाँधी जी का सबसे करीबी मित्र जिसने उन्हें धोखा दिया

गाँधी जी का एक बहुत ही करीबी मित्र था जिसपर गाँधी जी आँख बन्द कर के विश्वास किया करते थे। जिसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं। जो बचपन से ही उनके साथ रहा था। उनके इस मित्र में वो सारी बुराइयाँ थी जो एक गलत व्यक्ति मे होतीं है। किन्तु गाँधी जी का मानना था कि वह उनके साथ रहकर सुधर जाएगा। वह गाँधी जी को डरपोक तथा स्वयं को बहादुर कहा करता था। वह गाँधी जी को यह कहकर मांस खाने के लिए उकसाया करता था कि मांस खाने से वह उसकी तरह निडर व बहादुर हो जाएंगे। एक बार तो उसने गाँधी जी को मांस खिला भी दिया था परन्तु उसके बाद गाँधी जी ने कभी मांस को छुआ तक नहीं। गाँधी जी के इस दोस्त का नाम शेख महताब था। जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में वहां रह रहे भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे। तो गाँधी जी ने अपने इस मित्र को भी वहां बुला लिया। वहां पहुंचने पर गाँधी जी ने घर की सारी जिम्मेदारी शेख महताब को सौप दी। कुछ दिनों में शेख इसका गलत फायदा उठाने लगा। वह सबके ऊपर अपना गाँधी का दोस्त होने का रौब झाड़ता था। खुद ऐयाशी करता और दूसरों पर आरोप लगाता था। गाँधी जी इन सब बातों से अनजान थे। एक बार तो उसने गाँध

दक्षिण अफ्रीका में पुलिस के हाथो पीट दिये गये थे गाँधी जी !

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जी हाँ महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तब एक बार फुटपाथ पर चलने के कारण वहा की पुलिस के हाथो पीट दिये गये थे। इतना ही नहीं बल्कि पुलिस कांस्टेबल ने उन्हें उठा कर सड़क पर फेंक दिया था। दरअसल 1893 में गाँधी जी एक साल के करार नामे पर दक्षिण अफ्रीका गये थे। बात तब कि हैं जब वह ट्रांसवाल के प्रिटोरिया में थे। ट्रांसवाल में एक नियम था कि कोई भी भारतीय या काला व्यक्ति रात 9 बजे के बाद सड़कों पर नहीं घूम सकता। साथ ही मे काले लोगों को फुटपाथ पर चलने का भी कोई अधिकार नहीं था। फुटपाथ सिर्फ गोरों के लिए ही थी।  उस समय वहां के प्रेसिडेंट क्रूग़र थे और प्रिटोरिया मे ही क्रूग़र का महल था। महल के आसपास सुरक्षा में कुछ सैनिक हुआ करते थे। दरअसल गाँधी जी को पैदल चलने का शौक था। एक दिन गाँधी जी क्रूग़र के महल के पास से गुजर रहे थे, वह अपने ही ख़यालों में खोये हुए थे।तो अचानक चलते चलते वह सड़क से फुटपाथ पर आ गए। थोड़ी ही देर में उन्हें एक जोरदार धक्का लगा और वे सड़क पर आ गिरे। सर उठाया तो सामने क्रूग़र का महल था। इससे पहले कि कुछ कहते सिपाहियों ने बेरहमी से गाँधी जी की पिटाई सुरू कर दी