भीष्म पितामह के जन्म के बाद उनकी माँ गंगा अपने पति शान्तनु को छोड़कर क्यों चली गई।

भीष्म पितामह के पिता महाराज शान्तनु का जन्म उनके दादा महाप्रतापी महाराज प्रतीप के बुढ़ापे मे हुआ था। इसीलिए महाराज प्रतीप ने शान्तनु के योग्य होते ही उन्हें अपना राजपाठ सौप दिया और वानप्रस्थ आश्रम में तपस्या करने चले गये। जाते जाते उन्होंने कहा कि बेटा एक स्वर्गीय सुन्दरी तुमसे विवाह करना चाहती है। वह कभी एकांत में तुम्हें मिलेगी। तुम उससे विवाह करना और उसकी इच्छा पूरी करना यही मेरी आज्ञा है। इसके बाद प्रतीप तपस्या करने जंगल में चले गए।

महाराज शान्तनु बड़ी ही योग्यता से प्रजा का पालन कर रहे थे। उनके राज्य में कोई दुखी नहीं था। सारे दुखों का उपाय वे पहले ही कर लेते थे। वे स्वयं राज्य में जाकर सबके दुःख सुख का पता लगाया करते थे। एक दिन वे घूमते हुए गंगा जी के तट पर जा पहुँचे। उन्होंने देखा कि एक लक्ष्मी के समान तेज वाली स्वर्गीय सुंदरी वहाँ पर टहल रही है। महाराज शान्तनु ने ध्यान दिया कि वह स्त्री अनुरक्त दृष्टि से उनकी ही ओर देख रही है। उस स्त्री के हृदय का भाव जानकर शान्तनु ने पूछा -  देवी तुम कौन हो? देव हो या दानव, गंधर्व कन्या हो या नाग कन्या? मनुष्यों में तो तुम्हारे जैसी सुन्दर स्त्री का होना असंभव है। क्या तुम वहीं स्वर्गीय कन्या तो नहीं जिसके बारे में मेरे पिता ने मुझसे कहा था? और यदि तुम वहीं हो तो मुझे स्वीकार करके कृतार्थ करो। गंगा देवी ने मधुर मुस्कान के साथ राजा की ओर देखा और वसुओं को दिये गये वचन के बारे में सोचकर कहा - राजन! मैं वहीं हूँ। राजन! मैं आपकी इच्छा पूर्ण करुँगी तथा आपकी आज्ञा का पालन करुँगी, लेकिन आपको भी एक प्रतिज्ञा करनी होगी। आप कभी मुझसे मेरे बारे में कुछ नहीं पूछेंगे, मैं आपके साथ अच्छा या बुरा चाहे जैसा व्यवहार करूँ, आप मुझे मना नहीं करेंगे। और ना ही कोई कठोर वचन कह सकेंगे। आप जब तक इस प्रतिज्ञा का पालन करेंगे तभी तक मैं आपके पास रहूँगी। और जिस दिन आपने प्रतिज्ञा तोड़ी मैं आपको उसी क्षण छोड़ कर चली जाऊँगी।

राजा ने गंगा की बात मान ली और उन्हें अपने साथ राजधानी ले आये। समय बीतते देर ना लगी। राजा के सात पुत्र हुए लेकिन गंगा ने वसुओं को दिए वाचन के अनुसार सातो को जन्म लेते ही अपने जल में बहा दिया जिससे वसुओं का उद्धार हुआ। हर एक पुत्र की मृत्यु पर राजा को बड़ा दुःख और आश्चर्य होता। परन्तु अपनी प्रतिज्ञा के चलते वे गंगा को कुछ नहीं कह पाते थे। आठवें पुत्र के जन्म के बाद गंगा हँसती हुई उसे अपने जल में प्रवाहित करने जाने लगीं। परन्तु इस बार महाराज शान्तनु से नहीं रहा गया और उन्होंने उस पुत्र की जान बचाने के लिए गंगा से पूछ ही लिया कि तुम कौन हो? जो अपने ही पुत्रों को मार देती हो! क्या तुम्हारा हृदय नहीं कांपता? तुम हत्याकारिणी हो, पापीनी हो! तुम्हारा नाम तो बताओ? गंगा ने कहा - महाराज! यदि आप इस पुत्र को रखना चाहें तो रखे। अब मैं इसे नहीं मरूंगी, इस पुत्र के कारण आप श्रेष्ठ पिता कहे जायेंगे। लेकिन मेरी आपके पास रहने की अवधि अब समाप्त हो गई है, अब मैं आपके पास नहीं रहूँगी। मेरा नाम गंगा हैं और मैं राजर्षि जह्नु की पुत्री हूँ। बड़े बड़े महर्षि मेरी सेवा करते हैं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए मैं इतने दिनों तक आपके पास रही। आपके ये आठों पुत्र वसु देवता हैं। गुरु वसिष्ठ के शाप से मुक्त करने के लिये ही मेंने इन्हें अपने जल में डाल दिया था। वसुओं से मेंने एक पुत्र के जिवित रहने की प्रतिज्ञा करवा ली थी। सो आपका यह आठवां पुत्र जिवित रहेगा। अब मेरा कार्य संपन्न हुआ। अब मुझे जाना होगा। लेकिन अभी मैं इस पुत्र को अपने साथ ले जा रही हूँ। वहाँ यह अध्ययन करेगा कुछ सीखेगा और फिर सयाना होंने पर आपके पास आ जायेगा। इतना कहकर गंगा देवी अपने आठवीं पुत्र को लेकर अंतर्ध्यान हो गयी। गंगा और शान्तनु के यही पुत्र आगे चल कर भीष्म कहलाये। 

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